सर्वाधिक ऊंचे शेरगांव के बाशिंदे आज भी अंधेरे व अभावों में जीने को मजबूर

माउंट आबू . अरावली पर्वत शृंखला के सर्वाधिक ऊंचाई पर बसे, पर्यटन स्थल माउंट आबू से करीब 36 किलोमीटर की दूरी पर स्थित शेरगांव के लिए 16 किमी. का मोटरमार्ग तय कर गुरूशिखर, उतरज से होते हुए करीब 20 किमी. दुर्गम घाटियों के मध्य संकरी पगंडडियों के पैदल मार्ग की दूरी पर बसे शेरगांव के नागरिक वैज्ञानिक प्रगति के इस दौर में किसी दसवीं, बारहवीं सदीकाल में जीने को आज भी विवश हैं।

महाराणा के स्मृति चिह्न
महाराणा प्रताप के अज्ञातवास के दौर के खंडहर आज भी यहां मौजूद हैं। जहां गांव के मीठा कोठार नामक एक प्राचीन विशाल गुफा में उन्होंने अपनी सेना के साथ निवास किया। इस अवधि में उन्होंने बारूद व खाद्य सामग्री के गोदामों के लिए विभिन्न चौकियां स्थापित की जो आज भी महाराणा जीवन काल का वृतांत बताती हैं।

आधुनिक सुविधाएं
सड़क, चिकित्सा, टेलीफोन, दूरदर्शन, बिजली, रोजगार, अन्य प्रशासनिक सुविधांए प्राप्त करना शेरगांव वाशिंदों के लिए अभी तक किसी दिवास्वपन से कम नहीं थी। गांव में बिजली पहुंचने का सपना साकार होने की उम्मीद के साथ ही अन्य सुविधायें भी मुहैया होन की उनकी आश बलवती हुई है। बहरहाल देखना होगा कि कब तक उनकी उम्मीदों का सकारात्मक परिणाम सामने आता है।

कुपोषण सूखा रोग की चपेट में कई बच्चे
ग्लोबल अस्पताल चिकित्सा अधिकारी डॉ. कनकलता श्रीवास्तव के अनुसार गांव के लोगों के स्वास्थ्य परीक्षण पर अधिकांशत: यह दु:खद पहलू उभर कर सामने आया है कि यहां के सभी आयुवर्ग के लोग खून की कमी से लेकर अन्य कुपोषण सूखा, हड्डियों, त्पेदिक, गरीबीजन्य व्याधियों से ग्रस्ति हैं। समुचित चिकित्साभाव में असमय वे मृत्यु के शिकार हो जाते हैं।

बीमार को ऐसे पहुंचाते हैं अस्पताल
गांव के वाशिंदे बाबू सिहं लादू सिंह के अनुसार सामान्य चिकित्सा सुविधा के लिए गांव के लोगों को माउंट आबू आना पड़ता है। कई बार उन्हें अत्याधिक बीमारी की हालत में खाट में डालकर 8-10 लोगों को उठाकर लाना पड़ता है जिससे दुर्गम पहाडिय़ों की संकरी पगडंडियों से गुजरते हुए मार्ग पर लेकर चलना अत्यंत जोखिम भरा कार्य है। खाट उठाने वालों में से किसी एक का पांव जरा सा फिसलने अथवा खाट के किसी पहाड़ी चटटान से टकरा जाने की स्थिति में व्याधिग्रस्त समेत सभी की गहरी खाई में गिरने का खतरा बना रहता है। कष्टसाध्य मार्ग को देख कई बार लोग अस्पताल अभाव में असमय ही मौत के मुंह में समा जाते हैं।
स्कूल बंद होने से शिक्षा से वंचित हैं बच्चे
गांव के वाशिंदे विजय सिंह चिमन सिंह के अनुसार पिछले कुछ वर्षों तक गांव की करीब आधा दर्जन बालिकाओं समेत ढाई दर्जन बच्चे स्कूल जाते थे। गांव में टूटे-फूटे फर्श की टीन शेड के दो कमरों वाला एक विद्यालय भवन है।
स्कूल बंद होने से अब बच्चों को शिक्षा से वंचित होना पड़ रहा है। बड़े बुजुर्गों में लूम सिंह गांव के एकमात्र व्यक्ति थे जो अपने हस्ताक्षर करना जानते थे। करीब तीन दशक पूर्व वे अभावों की जिंदगी से परेशान होकर सपरिवार अन्यत्र पलायन कर चुके थे।

नहीं पता है लोगों को रेल का
गांव के वाशिंदे भगवान सिंह के अनुसार गांव में कई लोग ऐसे है जिन्हें यह पता ही नहीं है कि रेल क्या होती है। अधिकांशत: लोग रेल में नहीं बैठे हैं। यहां तक कि दो-चार बजुर्ग ऐसे भी है जिन्होंने मोटरवाहन को नहीं देखा है।

गांव में आ चुके हैं दो एसडीएम
गांव के वाशिंदे तेज सिंह व लक्ष्मण सिंह के अनुसार पूर्व में दो उपखंड अधिकारी जितेंद्र कुमार सोनी व अरविंद पोसवाल शेरगांव आ चुके हैं। जो यहां की दयनीय स्थिति व कष्टकर जीवनशैली को देखकर गए थे। इसके अतिरिक्त स्वतंत्रता से लेकर आज तक कोई भी जनप्रतिनिधि अथवा सरकारी नुमाइंदा यहां नहीं देखा।

&बिजली अभाव में घने जंगलों के बीच रातें अंधेरे में गुजारने को लोग मजबूर हैं। दिन में भी कई बार वन्य हिसंक प्राणियों का शिकार होना पड़ता है ऐसे में अंधेरी रातों में किन्हीं आवश्यक कार्यों को बाहर निकलना जीवन व मौत के बीच किसी संघर्ष से कम नहीं। भालूओं के अक्सर गांव में घुसने से राह चलते ग्रामीणों पर हमला करने की घटनाएं घटित हो चुकी हैं।
-बाबूसिंह भीमसिंह, शेरगांव

&गांव के बड़े बुजुर्गोंं के अनुसार 12वीं शताब्दी में ज्वालामुखी फटने से ऐतिहासिक चंद्रावती नगरी पतन के समय विपरीत परिस्थिति में विस्थापित होकर शेर सिंह परमार नामक एक व्यक्ति ने उनके पूर्वजों को यहां लाकर गांव बसाया था। उन्हीं के नाम पर गांव का नाम भी शेरगांव कहलाया। तब से वे लोग कष्टप्रद अभावों भरा जीवन जीने को अभिशापित हैं।
-देवीङ्क्षसह छतर ङ्क्षसह, शेरगांव

&गांव में सोलंकी, परमार, बोराणा कुल के राजपूत निवास करते हैं। मुख्य व्यवसाय पशुपालन है। कृषि के लिए छोटे-छोटे ढालू, सीढ़ीनुमा खेतों में मुख्यत: अपने गुजारे लायक मक्का, गेहंू की फसलें उगाई जाती हैं। सब्जियां इसलिए नहीं उगाते कि उन्हें बाजार उपलब्ध करवाने को सिर पर उठाकर माउंट आबू ले जाना पड़ता है जो बहुुत ही कष्टसाध्य कार्य है। पशुओं से उपलब्ध दूध, घी को ग्रामीण सिर पर ढोकर मीलों दूरी लंबी यात्रा तय कर बाजार पहुंचाकर रोजी रोटी का जुगाड़ करते हैं।
-उम्मेद सिंह जीव सिंह, शेरगांव



Source: Sirohi News